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आम जनता के लिए राज्यसभा अपनी प्रासंगिकता खो चुकी है

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गुजरात में राज्यसभा के लिए हुए चुनाव में कांग्रेस के वरिष्ठ नेता अहमद पटेल हार की कगार पर पहुंचकर भी अन्तोगत्वा आधे वोट से जीत कर पांचवी बार राज्यसभा में पहुँचने में कामयाब हो गए हैं. उनकी इस जीत ने गुजरात में मरणासन्न हो चुकी कांग्रेस को एक नया जीवनदान दिया है. हालाँकि इस जीत के लिए उन्हें और कांग्रेस को दुनियाभर के पापड़ बेलने पड़े. राज्यसभा चुनाव से पहले ही शंकर सिंह वाघेला ने कांग्रेस का दामन छोड़ दिया और उसके बाद छह कांग्रेसी विधायकों ने भी पार्टी से इस्तीफा दे दिया और पाला बदलकर भाजपा में चले गए. कांग्रेस पार्टी की अध्यक्ष सोनिया गांधी के राजनीतिक सचिव और कांग्रेस के वरिष्ठ नेता अहमद पटेल को गुजरात से संसद के उच्च सदन यानी राज्यसभा में पहुंचने के लिए 45 विधायकों की जरुरत थी. अहमद पटेल को पांचवी बार राज्यसभा में पहुंचाने के प्रयास में जीजान से जुटी कांग्रेस पार्टी गुजरात में भाजपा द्वारा की जा रही तोड़फोड़ और लालच में आकर विधायकों के पाला बदलने से परेशान थी. अहमद पटेल की राज्यसभा सदस्यता खतरे में देख कांग्रेस अपने 44 विधायकों को कई दिन तक बेंगलुरू में रखी, किन्तु फिर भी उनमे से एक विधायक ने कांग्रेस के खिलाफ मतदान किया. कांग्रेस के 42 विधायकों के वोट अहमद पटेल को मिले.

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एक जेडीयू और एक एनसीपी के विधायक ने अहमद पटेल को वोट देकर उनकी तय हार को जीत में बदल दिया. अपनी वफ़ादारी दिखाने के चक्कर में कांग्रेस से बगावत कर चुके दो व‍िधायकों ने बीजेपी उम्‍मीदवार को वोट देकर बैलट पेपर भाजपा को दिखाया, जबकि नियम यह है कि राज्यसभा चुनाव में वोट देने के बाद मतपत्र पार्टी के अधिकृत एजेंट को ही दिखाना होता है. किसी भी अनधिकृत वयक्ति को मतपत्र दिखाने की मनाही है. आश्चर्य की बात है कि ये बात कांग्रेस के बागी विधायकों राघवजी भाई पटेल व भोला पटेल को पता ही नहीं थी. भाजपा के लोंगो ने भी शायद यह बात उन लोंगो को नहीं बताई थी. उनकी यही गलती गुजरात से लेकर दिल्ली तक राजनीतिक घमासान की वजह बनी और 38 वोट हासिल करने वाले बीजेपी उम्मीदवार बलवंत राजपूत की हार का मूल कारण बन गई. कांग्रेस ने पार्टी से बगावत करने वाले इन 2 विधायकों के वोटों को लेकर कड़ा विरोध किया और चुनाव आयोग से इनके वोट रद्द करने की मांग की. कांग्रेस ने बहुत सटीक और तार्किक उदाहरण दिया कि 11 जून 2016 को हरियाणा के राज्यसभा चुनाव में ऐसा ही करने वाले सात कांग्रेस विधायकों के वोट रद्द हो गए थे.

बीजेपी की तरफ से 6 केंद्रीय मंत्रियों ने चुनाव आयोग के दफ्तर पहुंचकर कांग्रेस की मांग का पुरजोर विरोध किया. देर तक चले हाई वोल्टेज ड्रामें के बाद दिल्ली में चुनाव आयोग की पूर्ण पीठ ने रात 11.30 बजे दोनों वोट रद्द कर मतगणना के आदेश दिए. अब अहमद पटेल को जीत के लिए 43.51 वोट की दरकार थी. उन्हें 44 वोट मिले और वो जीत गए. जबकि दूसरी तरफ अमित शाह और स्मृति ईरानी 46-46 वोट पाकर राज्यसभा के लिए चुन लिए गए. इस जीत के बाद अहमद पटेल ने अपनी पहली प्रतिक्रिया में अपने आधिकारिक ट्विटर पेज पर ट्वीट किया, ‘सत्यमेव जयते’. अपने अगले ट्वीट में अहमद पटेल ने लिखा. ‘यह सिर्फ मेरी जीत नहीं है. यह धनबल, बाहुबल और राज्य सरकार की मशीनरी के दुरुपयोग की करारी हार है.’ अहमद पटेल साहब को जीत की बधाई, मेरी पूरी सहानुभूति उनके साथ है. लेकिन उनसे एक सवाल भी है कि राज्यसभा चुनाव में धनबल, बाहुबल और राज्य सरकार की मशीनरी का दुरुपयोग करने की शुरुआत किसने की? जाहिर सी बात है कि कांग्रेस ने ही गद्दीनशीनी के अपने स्वर्णिम दौर में इसकी शुरुआत की थी. आज बीजेपी केंद्र सहित अनेक राज्यों में सत्ता में है, वो भी अपने स्वर्णिम दौर में कांग्रेस वाली ही तमाम गलतियां कर रही है.

इस बात में कोई संदेह नहीं कि बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने कांग्रेस के वरिष्ठ नेता अहमद पटेल को हराने के लिए साम, दाम, भेद और दंड सबकुछ दांव पर लगा दिया था. कल रात न्यूज चैनलों पर चर्चा चल रही थी कि अमित शाह अहमद पटेल को किसी भी तरह से हराने के लिए हाथ धोकर उनके पीछे पड़ गए थे, क्योंकि इसी बहाने वो उनसे अपनी पुरानी राजनीतिक रंजिश का बदला लेना चाहते थे. साल 2002 में गुजरात में हुए दंगों के बाद अमित शाह को जो कई तरह मुकदमे और ‘तड़ीपार’ तक की सजा का कष्ट और अपमान झेलना पड़ा, उसके लिए अहमद पटेल को ही सबसे ज्यादा जिम्मेदार माना जाता है. इसमें सच्चाई जो भी हो, लेकिन एक बात तो हिन्दुस्तानियों को साफ़ दिख रही है कि राज्यसभा अब सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों ही दलों के नेताओं के सरकारी सुख-भोग का साधन मात्र बन के रह गई है. सत्ता के गलियारे में पहुंचने का यह बैकडोर इंट्री मार्ग बन चुका है. हमाम में सभी नंगे हैं, वाली कहावत के अनुसार ही राज्यसभा चुनाव में हमेशा से ही देश की सभी पार्टियों पर पैसे और पावर के गलत इस्तेमाल के आरोप लगते रहे हैं. पैसे के बल पर ही कई बड़े बिजनेस धनाढ्य राज्यसभा तक पहुंचे हैं. आम जनता के लिए राज्यसभा अपनी प्रासंगिकता खो चुकी है.


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